योग शब्द का अर्थ होता है जोड़ना अर्थात आत्मा को परमात्मा से जोड़ना,
" योगश्चित्त वृत्ति निरोधः "चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है | इस अवस्था में जीव अपने स्वरुप को पहचानता है,
अपने शरीर की उर्जा को पहचानता है| चित्त की वृत्तियों के निरोध के बाद कैवल्य \मोक्ष की प्राप्ति होती है| चित्त की वृत्तियां पांच है –
(१) प्रमाण (२) विपर्यय (३) विकल्प (४) निद्रा (५) स्मृति |
प्रमाण = प्रत्यक्ष , अनुमान , आगम (शब्द)
विपर्यय = मिथ्या ज्ञान एवं संशयः (अविद्या)
विकल्प = शब्द ज्ञानानुपाती वस्तु शून्यो विकल्प : |
निद्रा = अभाव प्रत्ययालम्बना वृत्तिनिद्रा | निद्रा में तमोगुण प्रधान रहता है | इस अवस्था को सुषुप्ति कहते है |विषय का आभाव इसका आलम्बन है |
स्मृति = "अनुभूत विषया सम्प्रमोषः स्मृतिः |" पहले से प्राप्त ज्ञान की पुनरावृत्ति स्मृति कहलाती है | चित्त की अवस्था भी पांच होती है | क्षिप्त , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्र , निरुद्ध |
क्षिप्त = इसमे चित्त रजोगुण और तमोगुण के प्रभाव में रहता है | चित्त स्थिरता नहीं रहती है |
मूढ़ = इस अवस्था में तमोगुण प्रधान रहता है इसमे निद्रा आलस्य आदि उत्पन्न होता है |
विक्षिप्त =इस अवस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है | तुरंत ही अन्य विषय की ओर ध्यान चला जाता है | यह चित्त की आंशिक स्थिरता अवस्था है |
एकाग्र = इस अवस्था में चित्त देर तक एक विषय में लगा रहता है यह योग का प्रथम चरण है
निरुद्ध = योग की यह अंतिम अवस्था है | इसमे चित्त की सभी वृत्तियों का लोप हो जाता है |
पांच क्लिष्ट वृत्तिया -
१- अविद्या = अनित्य को नित्य समझना| मिथ्या सुख वास्तविक सुख समझना |
२- अस्मिता = आत्मा को मन या बुद्धि समझना |
३- राग = सुख उत्पन करनेवाली वस्तुओं में तृष्णा |
४- द्वेष = दु:ख के साधनों में क्रोध |
५- अभिनिवेश = मृत्यु का भय |
पञ्चक्लेश - तमस , मोह , महामोह , तामिस्त्र ,अन्धतामिस्त्र |
योग के अष्टांग - यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान , धारणा , समाधि |
१- यम = अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः |अहिंसा - "सर्वभूतानां अनदिद्रोहः" प्राणियों को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुचाना |
सत्य - वान्गमनसयोः एकरुपता यथादृष्टस्य श्रुतस्य तदरूपेणाभिब्यक्ति:|जो वस्तु जिस प्रकार देखी हो आप्त पुरुषो से सुनी हो,
उसे उसी प्रकार मन मे रखना तथा दुसरे से कहना सत्य होत है |
अस्तेय - चौर्याभावः परद्रव्यस्य अहरणम् |दुसरे के द्रव्य कि चोरी न करना |
ब्रह्मचर्य - जितेन्द्रियता इन्द्रियो को वश मे रखना अपरिग्रह- पर द्रब्य को स्वीकार न करना दोषपूर्ण तरीके से द्रब्य का अर्जन रक्षण न करना |
अपरिग्रह - पर द्रव्य को स्वीकार न करना दोषपूर्ण तरीके से द्रब्य का अर्जन रक्षण न करना |
२- नियम = "शौच सन्तोष तपः स्वध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमा" | वह्यान्तर शुद्धता रखना ,
आवश्यकता से अधिक वस्तुयों की इच्छा न करना , सुख - दु:ख , आतप ,शीत , भूख , ध्यान आदि सहन करना |
मोक्षशास्त्रों का अध्ययन करना , इश्वर को भक्तिपूर्वक सभी कामो को समर्पित करना |
३- आसन ="स्थिर सुखमासनम् " स्थिर होकर देर तक सुख से बैठने वाली स्थिति में रहना बैठने की स्थिति पद्मासन ,
सिद्धासन ,शीर्षासन आदि योगासन |
४- प्राणायाम ="तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोः गति विच्छेद प्राणायामः"
स्थिर होकर श्वास प्रश्वास की गति को नियमित रोकना प्राणायाम कहलाता है |
यह तीन प्रकार का होता है | पूरक , रेचक , कुम्भक ,|
दह्यान्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः |
तथेन्द्रियानां दह्यान्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात ||
५- प्रत्याहार = "स्वविषयसंप्र्योगे चित्तस्य स्वानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः" इन्द्रियों को उनके विषय से हटाकर उन्हें अन्तरमुखी करना प्रत्याहार कहलाता है |
६- धारणा = देशबन्धश्चित्त्स्य , चित्त को किसी स्थान में स्थिर कर देना धारणा है | जैसे -चित्त को नाभिचक्र या अन्य स्थान में स्थिर कर देना
७- ध्यान = "तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् " एकाग्रचित्त को ध्येय वस्तु के साथ एकाकार रूप में प्रवाहित करना ध्यान कहलाता है |एक ही वस्तु का एकाग्रचित्त से चिंत्तन करना उसमे लीन होना ध्यान कहलाता है |
८- समाधि = "तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरुप शून्यमिव समाधिः" विक्षेप को हटाकर चित्त को स्थिर करना समाधि है |
यह दो प्रकार की होती है | सम्प्रज्ञात , असम्प्रज्ञात|
सम्प्रज्ञात- जब चित्त किसी एक विषय पर एकाग्र होता है तब उसकी वही एकमात्र वृत्ति रहती रहती है |
अन्य सभी वृत्तिया नष्ट हो जाती है | इस अवस्था को सम्प्रज्ञात समाधि कहते है | इस समाधि में कोई न कोई आलम्बन रहता है ज्ञान माता ज्ञेय की भावना बनी रहती है
असम्प्रज्ञात - जब चित्त का बंधन सभी विषयो से छुट जाता है तब असम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है | इसमे चेतना निर्बोध होती है | इसमे ज्ञान ज्ञाता तथा ज्ञेय की भवना बनी रहती है |
ईश्वर - योग में इश्वर का महत्त्व व्यवहरिक दृष्टि से अधिक है | इश्वर ध्यान के विषय साधनों में एक महत्त्वपूर्ण साधन है |
इश्वर अपनी कृपा से उपासको के पाप और दोष दूर करके उअनके लिए योग मार्ग को सुगम बनता है किन्तु मनुष्य को योग द्वारा अपने ईश्वर की कृपा के योग्य बनना चाहिये |
योग में ईश्वर को पुरुष विशेष कहा गया है |ईश्वर नित्य सर्वव्यापी , सर्वग्य एवं सर्वशक्तिमान है | ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास श्रुति सम्मत है | ज्ञान एक शक्ति मत्राए भिन्न - भिन्न पाई जाती है ,
अतः कोई ऐसा पुरुष है जो सर्वाधिक ज्ञानी और शक्तिशाली हैं वह ईश्वर ही है | सृष्टि का प्रारम्भ पुरुष और प्राकित के सयोग से होता है |
पुरुष और प्रकृति के सयोंग का कोई न कोई कारण होना चाहिए यह कारण ईश्वर ही है .|
अद्रिस्तो के अनुशार संसार की रचना जिसमे जीवो के अच्छे - बुरे कर्मो का फल मिलता है | ऐसा सर्वग्य ईश्वर ही कर सकता है | अतः ईश्वर है ||
एतिह्य-
१- ब्रह्मा योग का उपदेश
२- पतंजलि ४५० ई. पूर्व योगसूत्रम्
३- अज्ञात व्यासभाष्य
४- भोज १०० ई. ई. पूर्व भोजवृत्ति
५- वाचस्पति मिश्र तत्ववैशारदी
६- विज्ञानभिक्षु योगवार्तिक