Karm Kand Pujan

षोडश संस्कारो में की जाने वाली क्रियाएं -

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारो पर ही आधारित है| हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारो का अविष्कार किया , धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टी से भी     इन संस्कारो का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है | भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारो का  महती योगदान है | प्राचीन कल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से प्रारंभ होता है | उस समय संस्कारो की संख्या 40 थी | जैसे – जैसे समय बदलता गया तथा ब्यस्तता बढ़ती गयी तो कुछ संस्कार स्वतः विलुप्त हो गए | इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारो की संख्या निर्धारित होती गई | गौतम स्मृति में 40 प्रकार के संस्कारो का उल्लेख है |

गर्भाधान संस्कार – गर्भाधान संस्कार हमें सचेत करता है की किसी भी जातक का माँ के गर्भ में आना एक आकस्मिक घटना नहीं अपितु पूर्व नियोजित प्रक्रिया है जिससे सुयोग्य संतान प्राप्त की जा सके | गर्भाधान का समय ऋतुस्राव होने से 4 से 16 रात्रियाँ होती है शुभ रात्रियाँ 8वीं 9वीं 10वीं 12वीं 15वीं तथा 16वीं रात्रि है | इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु गर्भाधान से पूर्व पति पत्नी को अपने मन – तन को पवित्र बनाना चाहिए | शुद्ध रज – वीर्य के सयोंग से ही संस्कारवान संतान का जन्म होता है पतिव्रत धर्म और ब्रह्मचर्य पालन से ही रज – वीर्य की शुद्धि होती है | जिस सुभ रात्रि में जिस समय गर्भाधान करना हो तो उस समय पति – पत्नी स्वयं को आचमन आदि से सुद्ध कर लेना चाहिए फिर पति हाथ में जल लेकर यह कहे की मैं इस पत्नी के प्रथम गर्भाधान संस्कार के बीज तथा गर्भ संबधी दोषों के निवारणार्थ इस गर्भाधान संस्कार क्रिया करता हूँ | पत्नी पश्चिम की ओर पैर करके सीधे चित्त लेटे तथा पति पूर्वाभिमुख बैठकर पत्नी के नाभि स्थल को अपने दायें हाथ से स्पर्श करता हुआ निम्न मन्त्र का उच्चारण करे :

“ ॐ पूषा भग सविता मे ददातु रुद्रः कल्पतु ललामगुम “ ॐ विष्णुभौनिकल्पमतु त्वष्य रूपाणि यिथषतु साचिसत्त प्रजापतिर्भानां गर्भ दधालुते |

पुंसवन संस्कार  गर्भ का विकास सम्यक प्रकार से हो इसके लिए पुंसवन संस्कार , गर्भाधान संस्कार के तीसरे महीने में किया जाता है इस संस्कार की मुख्य क्रिया में खीर की 5 आहुतियाँ दी जाती है हवन से बची हुई खीर को एक पात्र में भरकर पति , पत्नी की गोद में रखता है और एक नारियल भी प्रदान करता है पूजा समाप्ति और ब्राह्मण भोजन के पश्चात पत्नी इस खीर को प्रेम पूर्वक सेवन करती है |

सीमन्तोन्नयन संस्कार  यह  संस्कार भी गर्भस्थ  शिशु के उन्नयन के लिए किया जाता है यह संस्कार शिशु को सौभाग्य संपन्न बनता है यह संस्कार गर्भ के  सातवें मैंने में करना चाहिए | इस संस्कार का उद्देश्य जन्म लेने वाले  शिशु के स्वास्थ तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए इश्वर से प्रार्थना करना है | इस संस्कार में हवन किया जाता है और गर्भवती स्त्री के  जुड़े में 3 कुशाएँ और गुलर के फूल लगाये जाते है , इस संस्कार के अवसर पर वीणा वादन के साथ सोमराग का गान आदि भी होता है जो गर्भवती स्त्री को प्रफुल्लित करने का , भक्ति का संस्कार करने का उत्तम साधन है |

जातकर्म संस्कार  शिशु के जन्म लेने पर जो संस्कार किया जाता है उसे जातकर्म संस्कार कहते है इसका मुख्य अंग “मेघाजनन “ संस्कार है इसके द्वारा माता पिता के शारीरिक दोषों का शमन किया जाता है | पिता या घर के अन्य बुजुर्ग ब्यक्ति द्वारा नाल काटने के बाद सोने की सलाई से शिशु को विषम मात्रा में शहद और घी चटाना चाहिए | इसी के साथ संतानोत्पति से पूर्व की संस्कारिक क्रियाएं पूर्ण हो जाती है |

नामकरण संस्कार  यह संस्कार चार वर्णों  का होता है नाम केवल “शब्द’’ ही नहीं बल्कि एक कल्याणमय विचार भी है | इससे जातक का कल्याण भी होता है शिशु का नामकरण दो प्रकार से किया जाता है ;

1 – जन्म नक्षत्र चरण व राशि अनुसार नाम जो गुह्य होता है इससे किया गया नामकरण शिशु के भाग्य में चार चाँद लगा देता है |

2 – पुकार का नाम जिसे लोक भाषा में बोलता नाम भी कहते है , पिता अपने शिशु के कान में कहता है पुकार का नाम केवल व्यवहार के लिए होता है |

जैसा की ऊपर बताया गया है नामकरण संस्कार चार वर्णों में होता है स्त्री एवं शुद्र का अमत्रंक एवं विजातियों का समंत्रक नामकरण होता है ब्राह्मण का नाम मंगलकारी तथा शर्मायुक्त , क्षत्रिय का बल तथा रक्षा समन्वित , वैश्य का धन पुष्टि युक्त तथा शुद्र का दैत्य और सेवा भाव युक्त होता है स्त्रियों के नाम सुकोमल , मनोहारी , मंगलकारी तथा दीर्घवर्णित होने चाहिए |

जैसे – यशोदा  कुछ ऋषियों ने नक्षत्र नाम को माता पिता की जानकारी में रहना उपर्युक्त बताया है अर्थात जिसे केवल माता पिता ही जाने अन्य कोई नहीं |बोलना नाम ही  प्रचलनं में रहना चाहिए  ताकि शत्रु के अविचार आदि कर्मो से शिशु की रक्षा की जा सके | अतः माता पिता भी उसे व्यवहार नाम से ही संबोधित करें , जब उसकी शिक्षा स्कुल से जुड़े तो उसका वास्तविक नाम डालना चाहिए ताकि भाग्य बराबर चलता रहे |6 नक्षत्र – अश्विन , मघा , मूल  तथा अश्लेषा , जेष्ठा व रेवती गंडमूल नक्षत्र हैं | इनमे से किसी में भी जन्मा शिशु माता पिता अपने कुल या अपने शरीर हेतु कष्टदायक होता है | इसके विपरीत यदि संकट समाप्त हो जाये तो अपार धन , वैभव ,एश्वर्य , वाहन अदि का स्वामी होता है | इसके पिता को 27 दिन तक एसे शिशु का मुख नहीं देखना चाहिए | मूल शांति करने के  बाद संबधित नक्षत्र का दान , हवन , पूजा आदि करवाकर 27 दिनों के बाद ही मुख देखें तथा नामकरण संस्कार कराएँ |

इससे सूत का स्नान , गणेश जी ,वरुण आदि पूजा नवीन वस्त्र शिशु कान में अमुक शर्माशि ,अमुक वर्माशि’’ इत्यादि नाम तीन बर सुनाये आदि क्रियाएं इसमें की जत्ती है |

निष्क्रमण संस्कार  यह संस्कार नवजात शिशु को प्रथम बार घर से बाहर खुले स्थान {बाग , बचीगा , नदी } आदि पर ले जाने से संबधित यह संस्कार शिशु के जन्म के 12वें दिन से लेकर 4 महीने तक कभी भी किया जा सकता है | सर्वप्रथम घर से बाहर पास के किसी मंदिर में शिशु को ले जाना चाहिए तथा उसी रात्रि में शुक्ल पक्ष के चन्द्र दर्शन व गणेशजी बाल कृष्ण भगवान के दर्शन करवाने चाहिए |

अन्नप्राशन संस्कार  यह संस्कार माँ के दूध के अतिरिक्त पहली बार ठोस आहार देते समय किया जाता है | इस संस्कार के द्वारा , माता के गर्भ में मलिन , भक्षण – जन्म दोष जो बालक में आ जाते है उसका नाश करने के लिए किया जाता है | जब बालक 6-7 मास का होता है तब यह संस्कार किया जाता है क्योकि उस समय शिशु के दांत निकलने लगते हैं तथा पालन क्रिया प्रबल होने लगाती है |शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता पिता सोने या चांदी के सलाखा या चम्मच से पुष्टिकरक अन्न चटातें हैं |

चूड़ाकर्म संस्कार  चूड़ाकरण संस्कार जन्म के विषम वर्षों में 1 3 5 7 आदि वर्षों में होना चाहिए | कुछ परिवारों में यह यज्ञोपवीत संस्कार के साथ भी किया जाता है | यह संस्कार चौल के नाम से भी जाना जाता है | जेष्ठ जातक का चूड़ाकरण सौर जेष्ठ मास में नहीं किया जाता , यदि माता 5 मास से अधिक की गर्भवती हो तो भी यह संस्कार नहीं होता ,बाल काटने हेतु शिशु को पूर्व की ओर मुख करके बिठाया जाता है बिच में मांग बनाकर दायें , बाएं और पीछे की ओर सिर में बालों को बैल के गोबर लपेटकर रखना चाहिए | कटे हुए बालों को गोबर सहित एक नए वस्त्र में रखकर जमीन में गाड़ना चाहिए या परिवार की परम्परानुसार गंगाजी में प्रवाहित करना चाहिए |

विद्यारंभ संस्कार  इसे अक्षरारंभ संस्कार भी कहते है | जब बालक का मस्तिष्क विद्या ग्रहण करने के योग्य हो जाता है  तब उसे अक्षरों का बोध कराया जाता है यह संस्कार 5 वर्ष या उपनयन संस्कार से पूर्व कराया जाता है | इसके लिए शुभ मुहूर्त बालक को स्नान कराकर सुगन्धित द्रब्यो व नवीन वस्त्रों से अलंकृत कर गणेश , सरस्वती , लक्ष्मी , व कुल देवी देवताओं की पूजा की जाती है इसके बाद शिक्षक पूर्व दिशा की ओर बैठकर पट्टी पर बालक से 

‘ॐ स्वस्ति  नमः’ सिद्धस्य आदि लिख कर विद्यारंभ करवाया जाता है बालक की जीभ पर शहद से ‘ऐ’ भी लिखा जाता है |

10 कर्ण वेधन संस्कार  यह संस्कार पूर्ण पुरुषत्व या स्त्रीत्व की प्राप्ती हेतु किया जाता है |शास्त्रों में कर्णबेधन रहित पुरुष को शास्त्र का अधिकारी नहीं माना गया है यह संस्कार शिशु के जन्म से 6 मास से 16 मास  के बीच किया जाता है अथवा 3 , 5 आदि विषम वर्षीय आयु में या परिवार की परम्परानुसार करना चाहिए | यह संस्कार धुप में करना चाहिए जिससे सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रविष्ट होकर बालक  - बालिका को शुद्ध बनाती है तथा तेज संपन्न भी करती है | ब्राह्मण और वैश्य वर्ण का उपरोक्त संस्कार , क्रिया आदि  की श्लाका से व क्षत्रिय की सोने की श्लाका से तथा शुद्र वर्ण की लौह श्लाका से करने का विधान है |  आयुर्वेद के अनुसार कर्ण बेधन से एक ऐसी नस बिन्दु बन जाती है | जिससे आंत्र वृद्धि (हर्निया रोग) नहीं होती है | इससे पुरुषत्व व् स्त्रीत्व नष्ट करने वाले रोगों से रक्षा भी होती  है |

11 यज्ञोपवीत संस्कार  इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते है इससे मानव जीवन का आरम्भ माना जाता है इस संस्कार की क्रिया करने से करोड़ों जन्मों के संचित पाप कर्म से मुक्ति मिल जाती है | लेकिन शुद्र वर्ण को इसकी मनाही है |अन्य वर्णों में ब्राह्मण को यह संस्कार ८वें वर्ष में क्षत्रिय को ११वें और वैश्य वर्ण को १२वें वर्ष में कराना चाहिए |वर्ष की गणना गर्भ के समय से ही करनी चाहिए इस संस्कार के समय विभिन्न वैदिक मंत्रो के साथ गायत्री मन्त्र का भी पूर्ण उच्चारण किया जाता है |गुरु बालक को गायत्री मन्त्र की दीक्षा भी देते है इस संस्कार क्रिया में बालक को भिक्षा भरण भी हून पड़ता है इस संस्कार के पश्चात बालक वैदिक कर्म करने का अधिकारी हो जाता है परन्तु उसे विवाह होने तक ब्रह्मचर्य के नियमो का पूर्णतया पालन करना पड़ता है |यह एक कठोर ब्रत किया है साथ ही आचार्य द्वारा दिए गए उपदेशों का भी दृढ़ता से पालन करना चाहिए तभी उसे दिव्यत्व की प्राप्ति होती है |

12 वेदारंभ संस्कार  यह संस्कार वेड सिखना प्रारंभ करने के साथ किया जाता है उपनयन संस्कार के साथ भी यह संस्कार किया जा सकता है | इस संस्कार के बाद उसी दिन या इससे तिन दिन बाद यह संस्कार की जाती है महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिन जिन कुलो में बड़े शाखाओं का अध्ययन परंपरा से होता चला आ रहा हो उन कुलो के बालको को उसी शाखा का अभ्यास करना चाहिए | अपने कुल की परंपरागत शाखा का अध्ययन करना चाहिए वेदाध्ययन गुरु के सान्निध्य में करना चाहिए, इस संस्कार में वेद मन्त्र की आहुतियों से यज्ञ करने का विधान है |

13 केशांत संस्कार – यह संस्कार गोदान संस्कार भी कहलाता है | यह चूड़ाकर्म के समान ही  है यह संस्कार लगभग 16 वर्ष  की उर्म के आसपास किया जाता है | इस क्रिया के रूप में दाढ़ी मूंछ बनवायी जाती है |

14 समावर्तन -  समावर्तन का अर्थ है जातक का विद्या अध्ययन पूर्ण करके गुरु के घर से  अपने घर लौटना | यह  संस्कार विद्या अध्ययन का अंतिम संस्कार है , विद्या अध्ययन सामाप्त हो जाने के बाद अनंत्तर स्नातक ब्रह्मचारी अपने गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समपवार्तित होता है अतः इसे समापन संस्कार कहते हैं |

15 विवाह संस्कार – बिना विवाह जातक कर्म के योग्य नहीं होता है | इस संस्कार के बाद ही जातक ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है इसे पवित्र बंधन माना जाता है | वर – बधू अग्नि को साक्षी मानकर 7 फेरे लगाते है जो 7 बचनो व् 7 जन्मो से जुड़े होते है | ऋग्वेद में ‘ जायेदस्तम ’ शब्द का प्रयोग मिलता है जिसका अर्थ है की पत्नी ही गृह है | शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा गया हैं | विवाह शुभ मुहूर्त में करवाया जाता है ताकि वैवाहिक जीवन मधुर व् सुखी रहे |

16 अंत्येष्टि या अंतिम संस्कार – यह संस्कार जातक की मृत्यु के पश्चात किया जाता है हिन्दू धर्म में दाह संस्कार किया जाता है ताकि शरीर , पञ्च तत्वों में विलीन हो तथा आत्मा को सदगति मिले |